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ताजमहल
संगमरमर में तराशी गई एक कविता। आकर्षण और भव्यता, अनुपम, ताजमहल पूरी दुनिया में अपनी प्रकार का एक ही है। एक महान शासक का अपनी प्रिय रानी के प्रति प्रेम का यह अद्भुत शाहकार है। बादशाह शाहजहां के सपनों को साकार करता यह स्मारक 1631 ए. डी. में निर्मित दुनिया के आश्चर्यों में से एक है। इसे बनाने में 22 वर्ष का समय लगा। इस अद्भुत मकबरे को पूरा करने में यमुना के किनारे लगभग 20 हजार लोगों ने जुट कर काम किया। ताजमहल का सबसे मनमोहक और सुंदर दृश्य पूर्णिमा की रात को दिखाई देता है।
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बृहदेश्वर मंदिर, तंजौर
ब़ृहदेश्वर मंदिर चोल वास्तुकला का शानदार उदाहरण है, जिनका निर्माण महाराजा राजा राज (985-1012.ए.डी.) द्वारा कराया गया था। इस मंदिर के चारों ओर सुंदर अक्षरों में नक्काशी द्वारा लिखे गए शिला लेखों की एक लंबी श्रृंखला शासक के व्यक्तित्व की अपार महानता को दर्शाते हैं।
बृहदेश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित एक भवन है और यहां इन्होंने भगवान का नाम अपने बाद राज राजेश्वरम उडयार रखा है।
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आगरे का किला
ताजमहल के उद्यानों के पास महत्वपूर्ण 16 वीं शताब्दी का मुगल स्मारक है, जिसे आगरे का लाल किला कहते हैं। यह शक्तिशाली किला लाल सैंड स्टोन से बना है और 2.5 किलोमीटर लम्बी दीवार से घिरा हुआ है, यह मुगल शासकों का शाही शहर कहा जाता है। इस किले की बाहरी मजबूत दीवारें अंदर एक स्वर्ग को छुपाए हुए हैं।
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गेटवे ऑफ इंडिया
गेटवे ऑफ इंडिया अब मुम्बई शहर का पर्यायवाची बन गया है। यह मुम्बई का सबसे अधिक प्रसिद्ध स्मारक है और यह शहर में पर्यटन की दृष्टि से आने वाले अधिकांश लोगों का आरंभिक बिन्दु है। गेटवे ऑफ इंडिया एक महान ऐतिहासिक स्मारक है, जिसे देश में ब्रिटिश राज के दौरान निर्मित कराया गया था।
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महाबोधि मंदिर संकुल, बोध गया
बोध गया में स्थित महाबोधि मंदिर का संकुल भारत के पूर्वोत्तर भाग में बिहार राज्य का मध्य हिस्सा है। यह गंगा नदी के मैदानी भाग में मौजूद है। महाबोधि मंदिर बुद्ध भुगवान की ज्ञान प्राप्ति के स्थान पर स्थित है। बिहार महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित चार पवित्र स्थानों से एक है और यह विशेष रूप से उनके ज्ञान बोध की प्राप्ति से जुड़ा हुआ है।
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सेंट केथेड्रल
गोवा की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित धार्मिक इमारतों में से यह भव्य 16वीं शताब्दी का स्मारक है, जिसे पुर्तगाल शासन के दौरान रोमन केथोलिक द्वारा बनाया गया था। यह एशिया का सबसे बड़ा चर्च है। यह केथेड्रल एलेक्सेंड्रिया के सेंट केथेरिन को समर्पित है, जिनके भोज्य दिवस पर 1510 में अल्फोंसो अल्बूकर्क ने मुस्लिम सेना को पराजित किया और गोवा शहर का स्वामित्व लिया।
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विक्टोरिया मेमोरियल
विक्टोरिया मेमोरियल कोलकाता के प्रसिद्ध और सुंदर स्मारकों में से एक है। इसका निर्माण 1906 और 1921 के बीच भारत में रानी विक्टोरिया के 25 वर्ष के शासन काल के पूरा होने के अवसर पर किया गया था। वर्ष 1857 में सिपाहियों की बगावत के बाद ब्रिटिश सरकार ने देश के नियंत्रण का कार्य प्रत्यक्ष रूप से ले लिया और 1876 में ब्रिटिश संसद ने विक्टोरिया को भारत की शासक घोषित किया। उनका कार्यकाल 1901 में उनकी मृत्यु के साथ समाप्त हुआ।
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लोक और जनजातीय कला
पत्ताचित्र चित्रकारी
चित्रकारी की पत्ताचित्र शैली ओडिशा की सबसे प्राचीन और सर्वाधिक लोकप्रिय कला का एक रूप है। पत्ताचित्र का नाम संस्कृत के पत्ता जिसका अर्थ है कैनवास और चित्रा जिसका अर्थ है तस्वीर शब्दों से मिलकर बना है। इस प्रकार पत्ताचित्र कैनवास पर की गई एक चित्रकारी है जिसे चटकीले रंगों का प्रयोग करते हुए सुन्दर तस्वीरों और डिजाइनों में तथा साधारण विषयों को व्यक्त करते हुए प्रदर्शित किया जात है जिनमें अधिकांशत: पौराणिक चित्रण होता है। इस कला के माध्यम से प्रदर्शित एक कुछ लोकप्रिय विषय है: थे या वाधिया-जगन्नाथ मंदिर का चित्रण; कृष्णलीला-जगन्नाथ का भगवान कृष्ण के रूप में छवि जिसमें बाल रूप में उनकी शक्तियों को प्रदर्शित किया गया है; दसावतारा पति-भगवान विष्णु के दस अवतार; पंचमुखी-पांच सिरों वाले देवता के रूप में श्री गणेश जी का चित्रण। सबसे बढ़कर विषय ही साफ तौर पर इस कला का सार है जो इस चित्रों अर्थ को परिकल्पित करते हैं। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस तरह की चित्रकारी करने की प्रक्रिया में पूरी तरह से ध्यान केन्द्रित करने और कुशल शिल्पकारिता की जरूरत होती है जिसमें केवल पत्ता तैयार करने में ही पांच दिन लग जाते हैं।
यह कार्य सबसे पहल पत्ता बनाने से शुरू किया जाता है। शिल्पकार जिन्हें चित्रकार भी कहा जाता है, सबसे पहले इमलह का पेस्ट बनाते हैं जिसे बनाने के लिए इमली के बीजों को तीन दिन पानी में भिगो कर रखा जाता है। इसके बाद बीजों को पीस कर पानी में मिला दिया जाता है और पेस्ट बनाने के लिए इस मिश्रण को मिट्टी के बर्तन में डालकर गर्म किया जाता है। इसे निर्यास कल्प कहा जाता है। फिर इस पेस्ट से कपड़े के दो टुकड़ों को आपस में जोड़ा जाता है और उस पर कई बार कच्ची मिट्टी का लेप किया जाता है जब तक कि वह पक्का न हो जाए। जैसे ही कपड़ा सूख जाता है तो उस पर खुरदरी मिट्टी के अन्तिम रूप से पालिश की जाती है। इसके बाद उसे एक नरम पत्थर अथवा लकड़ी से दबा दिया जाता है, जब तक कि उसको सतह एक दम नरम और चमड़े की तरह न हो जाए। यही कैनवास होता है जिस पर चित्रकारी की जाती है।
पेंट तैयार करना संभवत: पत्ताचित्र बनाने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है जिसमें प्राकृतिक रूप में उपलब्ध कच्ची सामग्री को पेंट का सही रूप देने में चित्रकारों की शिल्पकारिता का प्रयोग होता है। केथा वृक्ष की गोंद इसकी मुख्य सामग्री है और भिन्न-भिन्न तरह के रंग द्रव्य तैयार करने के लिए एक बेस के रूप में इस्तेमाल किया जाता है जिसमें तरह-तरह की कच्ची सामग्री मिलाकर विविध रंग तैयार किए जाते है। उदाहरण के लिए शंख को उपयोग सफेद रंग बनाने और काजल को प्रयोग काला रंग बनाने के लिए किया जाता है। कीया के पौधे की जड़ का इस्तेमाल सामान्यत: एक साधारण ब्रुश बनाने और चूहे के बालों का प्रयोग जरूरत होने पर बढिया ब्रुश बनाने के लिए किया जाता है जिन्हें लकड़ी के हैंडल से जो दिया जाता है।
पत्ताचित्र पर चित्रकारी एक अनुशासित कला है। इसमें चित्रकार अपनी रंग सज्जा जिसमें एक ही संगत वाले रंगों का प्रयोग किया जाता है, और नमूनों के प्रयोग की शैली का पूरी सख्ती से पालन करता है। स्वयं को इस कला के कुछ नियमों के दायरे में समेटकर ये चित्रकार इतनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति करने वाले इतने सुन्दर चित्र प्रस्तुत करते है कि आश्चर्य होता है यह जानकर कि इसमें रंगों के विविध शेडो (रंगत) का प्रयोग निषिद्ध है। वास्तव में चित्रों में उभारी गई आकृतियों के भावों का प्रदर्शन ही इस कला का सुन्दरतम रूप है जिसे चित्रकार पूरे यत्न से सुन्दर रंगो से सजाकर श्रेष्ठ रूप में प्रस्तुत करते हैं।
समय के साथ-साथ पत्ताचित्र की कला में उल्लेखनीय क्रांति आई है। चित्रकारों ने टस्सर सिल्क और ताड़पत्रों पर चित्रकारी की है और दीवारों पर लटकाए जाने वाले चित्र तथा शो पीस भी बनाए हैं। तथापि, इस प्रकार की नवीनतम से आकृतियों की परम्परागत रूप में अभिव्यक्ति और रंगो के पारम्परिक प्रयोग में कोई रूकावट नहीं आई है जो पीढ़ी दर पीढ़ी उसी रूप बरकरार है। पत्ताचित्र की कला की प्रतिष्ठा को बनाए रखने में इसके प्रति चित्रकारों की निष्ठा एक मुख्य कारण है और ओडिशा में इस कला को आगे बढ़ाने के लिए स्थापित किए कुछ विशेष केन्द्र इसकी लोकप्रियता को उजागर करते हैं।
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